कुंभ: परंपरा, आस्था और संस्कृति का संगम
Author name:- Yash Shekhar
12 वर्षों के अंतराल के बाद प्रयागराज पुनः करोड़ों श्रद्धालुओं एवं संतों की विशालकाय भीड़ से आच्छादित हो उठा है। इस बार की खास बात यह है कि यह केवल कुंभ नहीं, बल्कि महाकुंभ है। यह दिव्य महाकुंभ हमारे और आपके जीवन में पहली और आखिरी बार होने जा रहा है। प्रत्येक छः वर्षों के अंतराल पर अर्धकुंभ का आयोजन होता है। हर दो अर्धकुंभ के बाद, एक पूर्णकुंभ आयोजित होता है। किंतु महाकुंभ की महत्ता एवं वैभव इससे कहीं अधिक विलक्षण है, इसका आयोजन 12 पूर्णकुंभ के बाद, यानी पूरे 144 वर्षों में केवल एक बार होता है। अर्थात हमारी पिछली दो से तीन पीढ़ियाँ इस अवसर से वंचित रहीं, और आने वाली दो पीढ़ियाँ भी इस अनमोल सौभाग्य का अनुभव नहीं कर पाएँगी।
कुंभ के कई मान्यताएँ और रहस्य हैं, जिनके बारे में या तो हमें ज्ञान नहीं है, या फिर उन्हें गलत समझते हैं। असल में, कुंभ का वर्णन न तो वेदों में किया गया है और न ही पुराणों में। यह विशाल आयोजन, जहां करोड़ों साधु-संत और भक्त एक साथ जुटते हैं, सिर्फ एक स्नान पर्व या लोगों की भीड़ तक सीमित नहीं है। कुंभ एक दिव्य परंपरा है, जिसमें भारत के 13 प्रमुख अखाड़े कल्पवास करने के लिए मिलते हैं। इन अखाड़ों के बिना कुंभ का मेला, या कुंभ का सम्पूर्ण आयोजन संभव नहीं है।
कुंभ मेले से जुड़ी जितनी भी कहानियां सुनाई जाती हैं, उनका स्रोत अक्सर पुराणों को बताया जाता है। इनमें से तीन मौखिक कहानियां प्रमुख हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराया जाता है। पहली और सबसे मशहूर कहानी है समुद्र मंथन की। कहा जाता है कि जब अमृत कलश की उत्पत्ति हुई, तो देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत पाने को लेकर संघर्ष हुआ। इस दौरान, अमृत की चार बूंदें धरती पर चार स्थानों पर गिर गईं। कुछ कथाओं में यह भी कहा गया है कि अमृत का पूरा कलश ही चार जगहों पर गिरा। इन्हीं स्थानों पर कुंभ मेलों का आयोजन होता है। इस कहानी का वर्णन किसी भी पुराण में नहीं मिलता है।
माना जाता है कि इन कहानियों का संबंध स्कंदपुराण से है।
दूसरी कहानी भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि गरुड़ को आदेश दिया गया था कि वे अमृत कलश को लेकर भगवान विष्णु तक पहुँचे । मगर इस यात्रा के दौरान वें 4 जगह पर विश्राम करते है, यानी 4 जगह पर उस अमृत कलश को रखते है। और इसीलिए उन चार स्थानों पर कुंभ मेला मनाया जाता है, लेकिन दुख की बात यह है कि इस कहानी का भी कोई उल्लेख वेदों या पुराणों में नहीं मिलता।
कुंभ मेले के इतिहास को समझने से पहले, हमें वेदों पर भी एक नज़र डालनी चाहिए। अकसर कुछ वैदिक दावे किए जाते हैं, जो मेरे अनुसार सही नहीं हैं। अगर आप वेदों को ध्यान से पढ़ें, तो उन्में कई ऐसे मंत्र मिलेंगे जिनमें 'कुंभ' शब्द का उल्लेख किया गया है। लेकिन यह 'कुंभ' मेले के संदर्भ में नहीं, बल्कि इनका अर्थ घड़े या पृथ्वी से जोड़ा जा सकता है।
यहां तक कि अगर आप महाकुंभ के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाई गई वेबसाइट देखें, तो वहां भी एक वैदिक मंत्र लिखा गया है, जो कुंभ मेले का वर्णन करता है। यह मंत्र ऋग्वेद के 10वें मंडल के 89वें सूक्त का सातवां मंत्र है। लेकिन अगर इस मंत्र को ध्यान से पढ़ा और समझा जाए, तो साफ होता है कि यहां 'कुंभ' का अर्थ कुंभ मेले से नहीं, बल्कि एक घड़े से है।
इसी प्रकार, अथर्ववेद में भी कुंभ शब्द का वर्णन है, यह मंत्र अथर्ववेद के चौथे कांड के 34वें सूक्त का सातवां मंत्र है। जिसमें चार स्थानों पर लगने वाले कुंभ मेले के पीछे की कहानी को समझाया गया है। परंतु यदि भाष्यकारों की बात मानें, तो इस मंत्र में चार जगहों की नहीं, बल्कि चार घड़ों की बात की गई है।
इसी तरह और भी कई वैदिक मंत्र हैं, जिनमें 'कुंभ' शब्द का उल्लेख है। हालांकि, इन मंत्रों से हम 'कुंभ' शब्द का अर्थ समझ सकते हैं, लेकिन कुंभ मेले के इतिहास का कोई स्पष्ट उल्लेख वेदों में नहीं है।
अब यह सवाल उठता है कि अगर कुंभ मेले का उल्लेख न वेदों में है और न ही पुराणों में, तो यह सनातन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा कैसे बन गया? और हर सनातनी को कुंभ मेले से क्यों जुड़ना चाहिए?
भले ही कुंभ मेले का सीधा वर्णन हमारे ग्रंथों में न हो, लेकिन अगर पारंपरिक रूप से देखें, तो ऐसे कई पर्व और उत्सव हमेशा से मनाए जाते रहे हैं, जिसमें एक विशेष मुहूर्त पर हिंदू पवित्र नदियों के किनारे एकत्रित होते थे। यह परंपरा सनातन संस्कृति के आरंभ से ही चली आ रही है। इसका एक उदाहरण माघ मेला है। इसका कारण यह है, कि सनातन धर्म में नदियों को हमेशा पूजनीय माना गया है। इसलिए, चाहे वह प्रयागराज हो, नासिक, हरिद्वार या उज्जैन, लोग इन तीर्थ स्थलों पर पवित्र स्नान के लिए सदियों से आते रहे हैं। कुंभ मेला इसी गहरी परंपरा का एक दिव्य रूप है।
जैसे अग्निपुराण के “प्रयाग महत्म” में प्रयाग की महिमा का वर्णन है, प्रयाग में हज़ारों की संख्या में हिंदू आते थे और स्नान करते थे। इसका विवरण बोध ग्रंथों में भी मिलता है, जैसे बोध ग्रंथ का एक मुख्य ग्रंथ है, मज्झिम निकाय जिसमे 1.7 खंड में प्रयाग में होने वाले एक स्नान पर्व का उल्लेख मिलेगा। इस बात से यह सिद्ध होता है की गौतम बुध के पहले से हिंदू प्रयागराज में पवित्र स्नान करते आयें है। मगर इनमे से किसी भी ग्रंथ में 'कुंभ' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।
‘कुंभ मेले’ का उल्लेख पहली बार मुगल काल में मिलता है। अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखी गई किताब आइन-ए-अकबरी में पवित्र स्नान का ज़िक्र है, लेकिन वहां भी 'कुंभ' शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ है। ‘कुंभ मेला’ शब्द का स्पष्ट प्रयोग खुलसत-उत-तवारीख और चहार गुलशन नामक किताबों में मिलता है। इन पुस्तकों में हरिद्वार में होने वाले ‘कुंभ पर्व’ का वर्णन किया गया है। ये किताबें औरंगज़ेब के शासनकाल में लिखी गई थीं।
कुंभ के पीछे होने वाली खगोलीय घटनाओं को वेदों और पुराणों में विस्तार में समझाया गया है। समुद्र मंथन की कहानी में बताया गया है कि जब अमृत के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिनों तक संग्राम हुआ, तो अमृत की रक्षा के लिए तीन देव आगे आये थे। कथा के अनुसार, चंद्रदेव अमृत कलश के मुंह से अमृत बहने से रोकते हैं, सूर्यदेव कलश को फूटने से बचाते हैं, और देवगुरु बृहस्पति कलश को दैत्यों के हाथ लगने से रोकते हैं।
यहाँ 12 दिनों का महत्व यह है कि देवताओं के लिए 1 दिन मानवों के 1 वर्ष के बराबर होता है। इसी गणना के आधार पर हर 12 साल में कुंभ मेला मनाया जाता है।
दिलचस्प बात यह है कि बृहस्पति को एक चक्कर पूरा करने में 12 साल लगते हैं। लेकिन कहानी में सूर्य और चंद्रमा का भी ज़िक्र है। इसलिए जब इन तीनों ग्रहों की खास खगोलीय स्थिति बनती है, इसी पर कुंभ मेले का समय और स्थान तय किया जाता है।
कुंभ मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है; यह भारतीय संस्कृति, परंपरा, और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। यह पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है, अध्यात्म की गहराई में उतरने का अवसर देता है, और पूरे विश्व को भारतीय संस्कृति की भव्यता और आध्यात्मिकता से परिचित कराता है। भले ही इसके ऐतिहासिक या पौराणिक संदर्भ स्पष्ट न हों, कुंभ मेला अनादि काल से हमारी परंपरा में जीवित है और आगे भी रहेगा। यह आयोजन न केवल लाखों लोगों को एक साथ लाने का कार्य करता है, बल्कि आत्मा की शुद्धि, भक्ति की शक्ति और समाज में एकता के महत्व को भी रेखांकित करता है। कुंभ मेला इस बात का साक्षी है कि भारत की संस्कृति, चाहे हिंदू इतिहास में कितना ही परिवर्तन क्यों न आया हो, अपनी मूल आध्यात्मिकताओं और परंपराओं को बनाए रखने में अद्वितीय है।